
कर्मों का लेखा-जोखा-2.0 पसंद की परवाज़ और नतीजों का पिंजरा
पहले भाग में हमने समझा कि कर्म केवल क्रिया या काम नहीं है, वह एक प्रवाह है – जैसे ज़िंदगी। अब उस ज़िंदगी की नदी में आप तैरें या डूबें, उसका बहाव नहीं रुकता… वह बस बहता ही रहता है। हमने यह भी जाना कि हमारे कर्म हमारी आदतें बनाते हैं, आदतें हमारा स्वभाव, और वही स्वभाव हमारे चरित्र को आकार देता है – जो अंततः हमारे भाग्य की रूपरेखा तय करता है।
अब सवाल उठता है – मान लीजिए आपने ठान लिया कि अब तो तैरना ही है। शुरुआत भी कर दी, लेकिन अभी थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि अचानक किसी भंवर में फँस गए।
अब भंवर तो आपने बनाया नहीं था, फिर ये आपके साथ ही क्यों?
“मेरे साथ ही ऐसा क्यों होता है?”
यहीं से शुरू होती है गलतफहमियों की कहानी।
हम मान लेते हैं – “मैं अच्छा करूँगा, तो मेरे साथ अच्छा ही होगा।”
ज़िंदगी कोई वेंडिंग मशीन नहीं है!
सिक्का डालो, बटन दबाओ, और चॉकलेट का इंतज़ार करो –
हो सकता है कि सारी प्रक्रिया सही हो, फिर भी चॉकलेट अटक जाए…पैसे भी गए, और स्वाद भी नहीं मिला।
कर्म कोई सौदा नहीं, संवाद है
कर्म को समझना है तो ये समझना ज़रूरी है कि कर्म कोई कॉन्ट्रैक्ट नहीं है,
जहाँ दो अच्छे काम करोगे और बदले में इंस्टेंट रिवार्ड मिल जाएगा।
कर्म एक संवाद है – आपके काम और आपकी चेतना के बीच का।
असल सवाल यह नहीं कि “मुझे क्या मिलेगा?”,
बल्कि यह है – “जब मैं ये करूंगा, तो मैं खुद क्या बनूंगा?”
माइंडसेट की इकॉनॉमिक्स – कर्म और धर्म के बीच संतुलन
कर्म करने से पहले एक सरल सवाल पूछना चाहिए –
“क्या यह कर्म मेरी, मेरे परिवार की, समाज की और मेरी आत्मा की ज़रूरत है?”
जब उत्तर “हाँ” होता है, तब वह कर्म शुद्ध होता है –
वह ‘ज़रूरत का कर्म’ होता है।
ऐसे कर्मों में संतुलन होता है, सीमाएं होती हैं, और शांति होती है।
लोभ: जब ‘ज़रूरत’ के बहाने ‘लालच’ घर करता है
फिर आता है असली ट्विस्ट –
जब ज़रूरत का मुखौटा पहनकर लोभ हावी हो जाता है।
- ज़रूरत एक घर की है, पर इच्छा पाँच फ्लैट की है।
- ज़रूरत सम्मान की है, लेकिन लालसा है टाइटल, शो-ऑफ और वाहवाही की।
असल में हम कर्म से नहीं थकते,
बल्कि अपनी ही अतृप्त इच्छाओं और बेचैन महत्वाकांक्षाओं से थक जाते हैं।
माइक्रो-कर्म: छोटे व्यवहार, बड़ी ऊर्जा
कर्म का हिसाब सिर्फ़ बड़े-बड़े निर्णयों तक सीमित नहीं है।
‘Need’ और ‘Greed’ के बीच जो माइक्रो-कर्म होते हैं,
वही हमारे भीतर का नैतिक स्केच तैयार करते हैं:
- किसी के प्रति चुपचाप पनपी गाँठ,
- विनम्रता का मुखौटा पहनकर बोला गया व्यंग्य,
- “ज़रूरत भर का झूठ”, “ज़रूरत भर की चिंता” – सिर्फ़ छवि बनाए रखने के लिए।
आज की दुनिया में “Greed वाला कर्म” इंस्टाग्राम पर ट्रेंड करता है,
और “Need वाला कर्म” आत्मा के तहख़ाने में अकेला बैठा मिलता है।
कर्म के बहाव को रोका नहीं जा सकता, पर दिशा बदली जा सकती है
आप पूरी ईमानदारी से कर्म करते हैं, लेकिन फल किसी और को मिलता है –
जो शायद बबूल बो कर आम खा रहा है।
ऐसे में मन पूछता है – अब क्या करें?
क्या यूनिवर्स के खिलाफ FIR लिखवाएं?
याद रखें – कर्म इंस्टा रील नहीं, एक धीमी लेकिन गहराई से बनी पेंटिंग है।
आप सोचते हैं कि आपके अच्छे कर्मों से फल की नदी आपके घर आ रही है…
लेकिन ये Google Maps नहीं है – कि पता डालो और सीधा फल घर पहुँच जाए।
सही सवाल “क्या करना है?” नहीं, बल्कि “क्यों और कैसे करना है?” है।
सबसे गहरी समझ यह है –
“जो भी करना है, जब भी करना है, जैसे भी करना है – उसे पूरी जागरूकता से करना है।”
क्योंकि आप ही मूर्तिकार हैं और आप ही मूर्ति भी।
आपका हर कर्म – हर विचार –
आपके भीतर के ‘स्व’ को गढ़ता है, संवारता है।
सिग्नेचर:
कर्म का असली हिसाब न ऊपरवाले की “सीवी” में होता है,
न किसी गुप्त चिट्ठी में।
वो आपकी चेतना की किताब में लिखा जाता है।
ऊपरवाले ने सिर्फ़ टेम्प्लेट बनाया है…
डिटेल्स तो आपको ही भरनी होंगी।