
डरने के लिए किसी रिहर्सल की ज़रूरत नहीं, कोई प्रैक्टिस की ज़रूरत नहीं, इसमें परफेक्ट होने की कोई ज़रूरत नहीं — और न ही इसमें किसी परफेक्शन की ज़िद होनी चाहिए। या परफेक्शन कि अपेक्षा की जानी चाहिए!
यह डर बिल्कुल नैसर्गिक है। और अपने आपमें , जैसा भी है ….परफेक्ट ही है।
अगर अभिनय को छोड़ दें, तो हर बार यह बिना बुलाए चला आता है… इसके पीछे कुछ ठोस कारण हो सकते हैं, लेकिन मज़े की बात ये है कि डर मन में बसता है पर वो सिर्फ़ मनमे ही नहीं रहता, उस वजह से पूरी बोडि – पूरा शरीर सक्रिय हो जाता है — ‘फाइट, फ्लाइट या फ्रीज़’ मोड में!!!
हम अक्सर सुनते हैं — “सकारात्मक सोचो, डर के साथ मत जियो!” पर क्या ये सचमुच संभव है?
वो संभव है या नहीं, वो तो बाद की बात है… सबसे पहले यह जानना ज़रूरी है कि डर होता क्या है? डरना क्या होता है?
डर की परिभाषा क्या है?
डर हमारे भीतर की नैसर्गिक संचार प्रणाली — एक सुरक्षा प्रणाली (सेफ्टी मेकैनिज़्म) है, जो हमें संभावित खतरे या नुकसान से सावधान रहने का संकेत देती है। जैसे कोई भीतर से कहता है,
“जागो मोहन प्यारे, यहाँ कुछ अनहोनी हो सकती है!”
डर एक भावना है, एक अहसास है — कुछ अप्रत्याशित या अनचाहा घटने का एक काल्पनिक पूर्व-संकेत।
डर की सटीक परिभाषा देना कठिन है। कभी जब हम अकेले होते हैं और विचारों का तूफ़ान उठता है, तब मन में यह सवाल भी उठता है — क्या डर इतना डरावना है कि उससे भाग जाना चाहिए?
शरीर की ‘फाइट, फ्लाइट या फ्रीज़’ प्रतिक्रिया
असल में डर के पीछे कई बार कोई पूर्व अनुभव होता है, तो कभी केवल कल्पना। लेकिन जैसे ही डर हमारे भीतर जगह बनाता है, हमारा मन और शरीर — दोनों ही — फाइट, फ्लाइट या फ्रीज़ की स्थिति में चले जाते हैं।
या तो तुरंत किसी परिस्थिति से लड़ने की योजना बनने लगती है — तभी हमें वो कहावत याद आती है: “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत!”
फिर कभी विचारों की रफ्तार और बढ़ जाती है और पलायन का विचार आता है — जिसे एस्केपिज़्म कहते हैं। हम यह सोचने लगते है, “चलो इन सबको छोड़ कर कहीं ओर चले जाते हैं। इन सबसे कहीं दूर भाग जाते है।”
और कभी-कभी मन एकदम विचारशून्य होकर स्थिर भी हो जाता है।
प्रत्यक्ष या परोक्ष डर
ये सारी ही विचित्र अनुभूतियाँ – डर हैं। हम अपने जीवन में कई तरह के डर महसूस करते हैं — कुछ प्रत्यक्ष होते हैं, कुछ परोक्ष।
डर की यह अनुभूति हमारे विचारों, हमारा व्यवहार, हमारी भाषा और हमारे पूरे व्यक्तित्व को प्रभावित करती है। सब कुछ बदल जाता है।
ये बात सोचने पर मजबूर करती है कि हम असल में किससे डरते हैं, और हमें असल में किन चीज़ों से डरना चाहिए। आमतौर पर हम डरते हैं – नई शुरुआत से, नए रिश्तों से, पुराने रिश्तों के टूटने से। और उन वजह से हमारे वर्तमान पर या हमारे भविष्य पर क्या असर पड़ता है उससे डरने लगते है।
भविष्य की अनिश्चितता का डर – Fear of the Unknown
यह डर अक्सर बीते हुए अतीत के अनुभवों से जुड़ा होता है, या फिर उन कल्पनाओं से जो हमने खुद अपने मन में बनाई होती हैं। सवाल भी हम खुद पूछते हैं और नकारात्मक उत्तर भी खुद ही दे देते हैं। यह डर हमारे आत्मविश्वास को तोड़ देता है, निर्णय लेने की हमारी क्षमता को कमज़ोर कर देता है।
असफलता का डर – Fear of Failure
दूसरा बड़ा डर है – असफलता का डर। हम बहुत कुछ सोचते हैं, सपने देखते हैं, लेकिन उन्हें अमल में लाने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। यह डर हमें अंदर ही अंदर रोकता रहता है – “अगर मैं असफल हो गया तो?”
इसके अलावा और भी कई प्रकार के डर होंगे जो हम सभी को सताते हैं। मुझे जो डर याद आ रहे हैं, वो मैं यहाँ लिख रहा हूँ। अगर आपको कोई और डर महसूस होता हो जो यहाँ वर्णित न हो, तो कृपया manbhavee@gmail.com पर ईमेल कर जरूर बताएं। या आप कोमेंट बोक्स में भी लिख सकते हो। यदि आप अनुमति दें तो हम आपके नाम के साथ उसे इस ब्लॉग में प्रकाशित कर सकते हैं। और हां…सब्सक्राइब जरुर करें।
डर और तनाव के साथ कैसे जिएं?
सच यह है कि डर जीवन का हिस्सा है। हर किसी के मन में कोई न कोई डर जरूर होता है। जीवन में आर्थिक, सामाजिक या व्यक्तिगत कारणों से तनाव होना आम बात है।
अगर हम जीवन की सच्चाई को समझ लें, तो यह स्वीकारना आसान हो जाएगा कि डर और तनाव को जीवन से अलग नहीं किया जा सकता।
दरअसल डर को मिटाने की कोशिश करना एक व्यर्थ प्रयास है। डर को खत्म नहीं किया जा सकता, और मेरी राय में इसकी आवश्यकता भी नहीं है। ज़रूरत इस बात की है कि हम ये सीख लें कि डर और तनाव के साथ जीना कैसे है।
डर हमारा दुश्मन नहीं है।
इससे घबराने या भागने की ज़रूरत नहीं। दूसरे शब्दों में, डर एक संकेत है, संकट नहीं।
यह संकेत देता है कि हमारे जीवन में कुछ नया, कुछ अनजाना और कुछ चुनौतीपूर्ण घटने वाला है।
अब तक हमने जाना:
- भविष्य की अनिश्चितता का डर – Fear of the Unknown
- असफलता का डर – Fear of Failure
अब जानते हैं कि और कौन-कौन से डर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में हमें परेशान करते हैं:
अस्वीकृति का डर – Fear of Rejection
घर हो या समाज – स्वीकार न किए जाने का डर हमें खा जाता है।
रिश्ते, नौकरी, प्रेम, या समाज में अपनी जगह बनाने की चिंता –
“अगर लोग मुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो?” ये विचार हमारे अस्तित्व पर ही सवाल खड़े कर देता है।
तुलना का डर – Fear of Comparison
कभी लोग हमें दूसरों से तुलना करके जज करते हैं, और हम खुद भी कई बार अपनी तुलना दूसरों से करते रहते हैं।
हम अपना जीवन जीने की बजाय, दूसरों के जीवन से तुलना कर दुःखी होते हैं। “क्या मैं दूसरों से कमज़ोर हूँ?” – ये विचार मानसिक तनाव का कारण बनता है।
नियंत्रण खोने का डर – Fear of Losing Control
हम चाहते हैं कि सब कुछ हमारी इच्छा के अनुसार हो। लेकिन हर बार ऐसा संभव नहीं होता। जब चीजें हमारे नियंत्रण से बाहर जाती हैं, तो हम असहाय महसूस करते हैं –
“क्या अब मेरी कोई अहमियत नहीं रही ?,”
“क्या मैं अपना प्रभाव खो रहा हूँ?” – ये सोचें हमें बेचैन – व्यथित कर देती हैं।
अकेलेपन का डर – Fear of Loneliness
नियंत्रण खोने के बाद जो डर सबसे ज्यादा सता सकता है, वह है अकेले पड़ जाने का डर –
“अगर कोई मेरा साथ नहीं देगा तो?” “अगर में अकेला पड़ गया तो? ये सोच मन को हिला देती है।
निरर्थकता का डर – Fear of Meaninglessness
जब एक से अधिक डर मन में घर कर जाते हैं, तो जीवन निरुद्देश्य लगने लगता है –
“क्या मेरा जीवन अब दिशाहीन हो गया है?”
जीवन में उद्देश्य का ना होना हमें अस्तित्व की सीमा पर ला खड़ा करता है।
अतीत के अनुभवों का डर – Fear Rooted in Past Trauma
इंसानी स्वभाव है – अतीत को याद करना। चाहे वो शानदार रहा हो या दुखद।
लेकिन दुखद अतीत अक्सर हमें वर्तमान में भी पीछे खींचता है।
“क्या वही दर्द फिर दोहराया जाएगा?” ये आशंका हमारे वर्तमान को भी तोड़ देती है। हम वर्तमान को खो देते है।
मृत्यु का डर – Fear of Death
जीवन के अनिश्चित अंत का डर कई बार अलग-अलग रूपों में सामने आता है।
“मेरे जाने के बाद मेरे परिवार का क्या होगा?”, “मेरी बनाई चीज़ों का क्या होगा?”
ये सवाल हमें बेचैनी में डाल देते हैं। और मरने से पहले भी जीने नहीं देते!
जो समझ में न आए, उसका डर – Fear of the Unfathomable
क्या मैं अब इतना कमज़ोर पड़ चुका हूँ कि मैं कुछ समज नहीं पा रहा हूँ? ऐसी कितनी ही चीजे होंगी जो शायद में समज न पाऊं।
सफलता का डर – Fear of Success
यह विरोधाभास से भरा डर है। असफलता से डर लगना तो स्वाभाविक है, पर सफलता का डर? सुनने और सोचने में अजीब लगता है पर हकीकत है।
हां, जब हम सफल हो जाते हैं तो, – बढ़ी हुई अपेक्षाएं, जिम्मेदारियाँ और लगातार सफल रहने का तनाव…!! यह दबाव हमें भीतर से तोड़ने लगता है।
सिग्नेचर
हर डर के पीछे कोई न कोई कारण – सुरक्षा, प्रेम, मान्यता या नियंत्रण।
जब हम अपने डर को पहचानकर उसे थोड़ी दूरी से देखें, तो वही डर हमें डरा नहीं सकता।
बल्कि वह एक संदेशवाहक बन जाता है – एक संकेतक, जो हमें जीवन में नई दिशा दिखाता है।