
मन जैसे एक क्रिस्टल भूलभुलैया, मेरे अंदर एक कोर्टरूम – जिसमें मैं ही वकील, मैं ही आरोपी और मैं ही जज था।
एक रात नींद नहीं आ रही थी। बहुत कोशिश की, लेकिन नींद आने का नाम ही नहीं ले रही थी। असल में उस रात दिमाग़ में “विचार-वायु” उठी थी। मन बेचैन था। एक विचार से शुरुआत हुई और फिर कई विचारों का मेला लग गया।
- “कहीं मैंने किसी से कुछ गलत तो नहीं कह दिया?”
- “कहीं अनजाने में किसी को दुख तो नहीं पहुंचाया?”
- “अब क्या होगा?”
ऐसे सवाल बार-बार मन में उठने लगे।
मन जैसे एक क्रिस्टल भूलभुलैया
इन विचारों का सिलसिला किसी समाधान की ओर नहीं ले जा रहा था, उल्टा मुझे मानसिक और शारीरिक रूप से थका रहा था। मैं खुद को भीतर से टूटा और उलझा हुआ महसूस करने लगा। दिन-रात बिना किसी ब्रेक के, मेरे अंदर एक कोर्टरूम शुरू हो जाता था — जिसमें मैं ही वकील, मैं ही आरोपी और मैं ही जज था।
यह सिर्फ़ एक दिन की बात नहीं थी। यह एक सिलसिला बनता जा रहा था। रोज रातकी यही कहानी थी।
“ओवरथिंकिंग क्लब”
अगर आप भी मेरी तरह इन विचारों के जाल में फंसे हुए हैं, तो स्वागत है — आप भी “ओवरथिंकिंग” क्लब के स्थायी सदस्य हैं। हम सब एक ही नाव में सवार हैं।
हमारे देश की सड़कों की तरह, हमारे मन की सोच भी ट्रैफिक नियमों को तोड़ते हुए बिना रुके, बिना ब्रेक दौड़ती रहती है — जहां रुकना चाहिए, वहां भी नहीं रुकती।
इस दौड़ में डेविड फॉस्टर वालेस की एक बात याद आई:
“Thinking is a good servant but a poor master.”
जब मैंने इस बात पर ध्यान दिया, तो मुझे यह समझ आया कि विचारों का आना जरूरी है, लेकिन उनका ज़्यादा होना, अतिरेक होना — एक मानसिक अत्याचार है।
विचार हमारे साथी हैं, मालिक नहीं। उनके गुलाम बन जाना डरावना है।
“सोच का षड्यंत्र”
एक और बात मैंने गौर की — जब विचार-वायु उठती है, तब या तो मैं अतीत में खो जाता हूं या भविष्य की आशंकाओं में डूब जाता हूं। और इसी दोराहे में जो गायब हो जाता है, वो है — वर्तमान।
जब हम वर्तमान से कट जाते हैं, तब ऐसा लगता है जैसे किसी ने हमारे भीतर एक “सोच का षड्यंत्र” रच दिया हो।
🛠️ अब बात करते हैं ओवरथिंकिंग को काबू में करने के कुछ तरीकों की, जो मैंने अपनाए ।
1. हर विचार पर RTI मत लगाइए,
हर विचार का विश्लेषण करना, उसकी जड़ तक जाना ज़रूरी नहीं।
जैसे हर फॉरवर्डेड मैसेज सच नहीं होता, वैसे हर विचार भी सही नहीं होता।
जब आप यात्रा करते हैं, तो बहुत से लोग मिलते हैं। उनमें से कुछ बहुत अच्छे भी होते हैं, बातें अच्छी करते हैं — पर वो सब आपके दोस्त नहीं बन जाते।
ठीक वैसे ही, हर विचार जो आता है, वो स्थायी नहीं होता, ज़रूरी नहीं कि वो आपके हक़ में हो, और ये भी ज़रूरी नहीं कि वो सच ही हो।
2. अगर कोई गलती हुई हो तो, उससे सीखिए और आगे बढ़िए
सोचना ज़रूरी है — लेकिन सोच की भी एक सीमा होनी चाहिए।
अपना “थॉट परसेंटेज” तय कीजिए।
वरना ये थिंकिंग ओवरलोड होकर आपको अंदर ही अंदर जला डालेगा।
3. विचारों को मेहमान समझिए, मालिक नहीं
जब विचार आए, तो उनसे कहिए: “अतिथि तुम कब जाओगे?”
विचारों को जितनी जगह देंगे, वो उतना ही कब्ज़ा कर लेंगे।
धीरे-धीरे वो आपके दिमाग़ के बगैर किराया दिए किरायेदार बन जाएंगे — और फिर खुद को मालिक समझने लगेंगे।
इन्हें दोस्त मानिए, बॉस नहीं।
जब आप ये करने लगते हैं, तो थॉट ट्रैफिक धीरे-धीरे साफ़ होने लगता है। यह मेरी सोचा है।
विचार तो फिर भी आएंगे — पर अब आप “ट्रैफिक पुलिस” कि भूमिका में होंगे।
अब आप उन्हें भौंकने नहीं देंगे, बस देखकर मुस्कुराएंगे और आगे बढ़ जाएंगे।
🧘 निष्कर्ष:
ओवरथिंकिंग को पूरी तरह रोकना मुश्किल है,
लेकिन उससे दोस्ती करना ठीक है पर उसका गुलाम बन जाना भयावह है।
आपका दिमाग़ एक टूल है — एक ऐप की तरह।
उसे सही से कॉन्फ़िगर कीजिए, उसका आनंद लीजिए,
उसे जेल मत बनाइए।
इस ओवरथिंकिंग को नियंत्रित करने के लिए आप जो भी उपाय सोचते हों, या आपको जो भी विचार सूझे — कृपया उन्हें कमेंट सेक्शन में साझा करें।