रियल बनाम रील: ‘ये तो बस एक प्रैंक था’ की खतरनाक कहानी
हमारी हर धारणा, मान्यता और पसंद-नापसंद हमारे व्यक्तिगत अनुभवों, सुनी-सुनाई बातों, देखी या पढ़ी हुई जानकारियों पर आधारित होकर मजबूत होती जाती है। लेकिन अब ज़रूरत है समझने की और तय करने की – कि हम जीवन को कैसे जीना चाहते हैं – रीयल स्टाइल में या रील-स्टाइल में?
याद है वो कहानी?
“शेर आया, शेर आया!” की पुकार सुनकर जब सब लोग दौड़कर मदद के लिए आते थे, लेकिन बार-बार मज़ाक निकलती थी… तो एक समय ऐसा आया कि किसी ने भी उस पुकार को गंभीरता से लेना बंद कर दिया। और जिस दिन वाकई शेर आया, उस दिन कोई भी बचाने नहीं गया – क्योंकि सबने मान लिया था कि यह भी कोई और मज़ाक ही होगा।
यस्टरइयर्स (बीते दिनों) की मासूम मज़ाकें:
याद है ऑफिस का वो क्लासिक मज़ाक – टिफ़िन छुपा देना?
या जन्मदिन पर गिफ्ट में विशाल डब्बा और अंदर सिर्फ एक छोटी सी पेन?
किसी की कुर्सी पर रबर छिपकली या बबल रैप?
हम सब हँसते थे।
ऐसे मज़ाकों में✅ मासूमियत थी, ✅ हास्य था, ✅ मर्यादा थी, ✅ संबंधों की परवाह थी, और ✅ भावनाएँ जीवित थीं, ✅ और सबसे बढ़कर – उसमें अपनापन था
ज़िंदगी हल्की लगती थी। लेकिन जब वही मज़ाक आदत बन जाए, और वो आदत हमारी पहचान, और वहीं से हमारी कर्म रेखा भी बदलने लगती है।
मज़ाक ज़रूरी है, जीवन में ऊर्जा चाहिए, लेकिन जब यह मज़ाक सीमा पार करने लगे, बार-बार दोहराई जाने लगे, और आदत बन जाए, तो वह पहचान बनती है – और यही पहचान हमारे कर्मों को, हमारे भाग्य को कैसे आकार देती है, इसकी कल्पना करना भी मुश्किल है।
आज के दौर की हकीकत ये है कि बीते समय की मज़ाकों में सच्चाई थी, सरलता थी, निष्कपटता थी, लेकिन आज ये मज़ाक एक “Attention-Seeking Exercise” बन चुके हैं।
किसी को टार्गेट करो। उसे शर्मिंदा करो। उसकी भावनाओं से खेलो। उसे असुरक्षित महसूस कराओ। और फिर मासूमियत से कह दो – “अरे! ये तो सिर्फ एक प्रैंक था!”
“गुप्त बात” अब गांवभर में “वायरल” होती है।
आज भी लोग कान में कहते हैं – “देख, ये बात सिर्फ तुझसे कह रहा हूँ, किसी और से मत कहना” – और कुछ ही समय में पूरा गांव जान जाता है। हर कोई यही कहता है – “मैंने सिर्फ तुझसे ही कहा था”। बात बिना सोशल मीडिया के ही “वायरल” हो जाती है।
इस तरह बातें फैलती थी मगर छोटे से सर्कलमें,
अब एक ग्लोबल सर्कस बन जाती है।
धन्यवाद टेक्नोलॉजी और ग्लोबलाइजेशन को –
अब प्रैंक का दायरा सीमित नहीं रहा, अब वह सोशल प्रैंक और ग्लोबल प्रैंक बन गए हैं।
पहले की प्रैंक्स, बस हो जाया करती थीं – वो कोई “कंटेंट क्रिएशन” नहीं होता था। न कोई लाइक्स चाहिए होते, न व्यूज, न वायरल होने की हसरत।
आज हर घटना एक “क्लिकबेट” बन चुकी है।
जीवन Reel नहीं, Real है।
आज ज़रूरत है इस बात को समझने की कि ज़िंदगी Reel नहीं है। यह रीयल है – इसमें रीयल लोग हैं, रीयल भावनाएँ हैं, जीवन भर के सुख-दुख हैं। जो घटना किसी के लिए सिर्फ मनोरंजन या प्रैंक हो सकती है, वही किसी और के लिए दुःस्वप्न बन सकती है।
आज हालात ऐसे हो गए हैं कि अगर कोई आपदा या घटना हो जाए, तो लोग मदद करने की जगह सोचते हैं – ‘दूसरे के मामले में क्यों पड़ें?’ या फिर मोबाइल निकालकर वीडियो शूट करने लगते हैं। क्योंकि मन में उतावलापन होता है, कि किसी ओरने यह घटना वायरल कर दी तो मैं पीछे रह जाऊँगा!
हम संवेदनशीलता खो चुके हैं – मानवता पीछे छूट रही है। हम वायरल-सिकनेस के शिकार हो गए हैं।
आज तो ऐसा लगने लगा है कि जीवन भी अब एक ‘रील’ बन चुका है।
हमने प्राकृतिक घटनाओं से ज्यादा क्रिएट की गई घटनाओं को “रीयल” मानना शुरू कर दिया है।
हमारी आँखें अब सब कुछ मोबाइल के कैमरे कि नजरो से देखने लगी है! हम सब कुछ “कैंडिड कैमरा” के नज़रिये से देखने लगे हैं। हर चीज़ को फोन की लेंस से देखना नई आदत बन गई है।
आज हमारी मोबाइल की आंखें हर वक्त ‘प्रैंक’ तलाशती रहती हैं, अब हम प्रैंक का इंतज़ार नहीं करते… उन्हें प्लान करते हैं- वायरल करने के लिए।
मेरे मित्र विपुलभाई विठलाणी ने एक फेसबुक पोस्ट में खूब लिखा था –
“ज़िंदगी साली नारद मुनि जैसी हो गई है – बस WhatsApp, Facebook, Instagram – हम इन तीनों लोकों में घूमते रहते है।”
क्या सटीक कहा है, – बस बात के मर्म को समझने की ज़रूरत है।
ज़िंदगी कोई Reality Show नहीं है!
एक लड़की की चीख, एक लड़का गुस्से में, सड़क पर तमाशा, लड़का लड़की के साथ बदसलूकी करता है, उसके कपड़े फाड़ता है, लोग दौड़ते हैं, भीड़ इकट्ठी होती है, और जैसे ही सब मिलकर उसे पकड़ते हैं – लड़की हँसने लगती है और कहती है – “अरे! ये तो सिर्फ एक प्रैंक था, मेरे एक्टिंग टैलेंट का टेस्ट था!”
“मज़ाक है भाई… मज़ाक है!” – ये पाँच शब्द आज पाप को भी सेल्यूट करवा सकते हैं।
लेकिन जब हर कोई मानने लगे कि “कोई भी बात सीरियस लेने की ज़रूरत नहीं है – ये भी प्रैंक ही होगा”, तब समाज की नींव हिलने लगती है।
असल सवाल यह है –
जब तक “मज़ाक” है, तब तक सब ठीक है।
पर आज हम इंसान नहीं…
रिएक्शन मशीन बन चुके हैं, या बनने कि कगार पर है
कोई रो रहा है?
चलो शूट करते हैं।
शक करते हैं।
अपलोड करते हैं।
हमारा दिल अब दया से नहीं, डाउट से धड़कता है।
अब जब कोई दुखी दिखे, तो हमारा मन “कैमरा” खोजने लगता है। हमारी आँखें देखें उससे पहले मोबाइल रिकॉर्ड करने लगता है।
आज की पीढ़ी का परिचय – Reel Life है। आज ज़िंदगी होने की या जीने की नहीं, दिखाने की चीज हो गई है।
Instagram Reel, prank video, YouTube short – इन्हीं में आज का व्यक्तित्व ढल रहा है।
अब रीयल भावनाएँ भी ‘पोजिंग’ जैसी लगने लगी हैं।
अपने दुःख भी हम अब बैकग्राउंड म्यूज़िक और फिल्टर्स के साथ एक “मोंटाज” की तरह सोशल मीडिया पर डाल देते हैं।
अब सोचने का समय है –
क्या हमारे रिश्ते अब भी आत्मीय हैं?
या फिर बन गए हैं Reels में Modular?
प्रेम, करुणा, संवेदना – वाकई में हम में बची है या वो Reel के Filter बन चुके हैं
हमें तय करना है – जीवन जीना है Real-Style में या Reel-Style में?