murder- changed lives of millions
एडिटर्स चोईस - मनोरंजन

Nine Hours to Rama (1963)

Reading Time: 4 minutes

निर्देशक: मार्क रॉब्सन
पटकथा: नेल्सन गिडिंग (स्टैनली वॉल्पर्ट के उपन्यास पर आधारित)
मुख्य कलाकार: हॉर्स्ट बुशहोल्ज़ (नाथूराम गोडसे), जोसे फेरर (सुपरिंटेंडेंट गोपाल दास), वेलरी गेरोन (रानी), डायने बेकर, रॉबर्ट मॉर्ली
फिल्म प्रकार / वर्ष: ब्रिटिश-अमेरिकन नियो-नोयर क्राइम ड्रामा / 1963

कहानी / प्लॉट

फिल्म की कहानी 30 जनवरी 1948 के दिन से शुरू होती है — गांधीजी की हत्या से ठीक पहले के नौ घंटों पर केंद्रित। यह गांधीजी पर नहीं, बल्कि उनके हत्यारे नाथूराम गोडसे के मानसिक संसार पर बनी है।

गोडसे एक निर्णय की ओर बढ़ रहा है — गांधीजी की हत्या करने का। फिल्म फ्लैशबैक के माध्यम से दिखाती है कि कैसे गोडसे की सोच कट्टरपंथी बनती गई, विभाजन के दौरान उसके भीतर गुस्सा और असंतोष भरा, और कैसे निजी संबंध (एक विवाहित महिला रानी और एक वेश्या शीला) भी उसकी भावनाओं में उलझ जाते हैं।

उधर, पुलिस सुपरिंटेंडेंट गोपाल दास (जोसे फेरर) हत्या रोकने के लिए लगातार कोशिश करता है। पूरी फिल्म एक “काउंटडाउन” की तरह चलती है — हर घंटे के साथ तनाव, संदेह और निर्णय की गहराई बढ़ती जाती है।

अंत में, हत्या का दृश्य बहुत संयमित तरीके से दिखाया गया है — बिना किसी सनसनी या ग्लोरिफिकेशन के।

विशेषता / USP

फिल्म की सबसे अनोखी बात यह है कि यह गांधीजी के नहीं, बल्कि उनके हत्यारे के दृष्टिकोण से कहानी कहती है। “नौ घंटे” का सीमित समय-ढांचा इसे एक मनोवैज्ञानिक थ्रिलर का रूप देता है — यह इतिहास नहीं, बल्कि मनोस्थिति की कहानी है।

मज़बूत पक्ष (Plus Points)

  • साहसिक संरचना: हत्या से पहले के नौ घंटों को केंद्र में रखकर फिल्म का निर्माण एक अनोखा प्रयोग है।
  • मनोवैज्ञानिक गहराई: गोडसे के मन में चल रहे द्वंद्व, डर, अहंकार और वैचारिक संघर्ष को बारीकी से दिखाया गया है।
  • सिनेमाई वातावरण: नियो-नोयर शैली, धीमी गति का तनाव, और कुछ वास्तविक लोकेशन्स फिल्म को गहराई देते हैं।
  • अभिनय: हॉर्स्ट बुशहोल्ज़ और जोसे फेरर ने गंभीर और प्रभावी अभिनय किया है।

कमज़ोर पक्ष (Minus Points / Criticism)

  • कास्टिंग विवाद: भारतीय पात्रों के रोल मुख्यतः पश्चिमी अभिनेताओं ने निभाए, कुछ ने ‘ब्राउनफेस’ मेकअप भी किया — इससे भारतीय दर्शक असहज हुए और इसे असंवेदनशील माना गया।
  • ऐतिहासिक विकृति: कई तथ्यों को नाटकीय प्रभाव के लिए बदला गया, जिससे ऐतिहासिक सटीकता पर सवाल उठे।
  • धीमी गति: कई समीक्षकों ने फिल्म को “स्लो” बताया, और रोमांटिक सबप्लॉट को अनावश्यक कहा।
  • भावनात्मक दूरी: फिल्म भारतीय संवेदनशीलता को पूरी तरह नहीं पकड़ पाई — यह पश्चिमी दृष्टि से भारत को देखने जैसी प्रतीत होती है।

image Courtesy: Bollywood direct

बॉक्स ऑफिस / व्यावसायिक स्थिति

फिल्म का बॉक्स ऑफिस प्रदर्शन कमजोर रहा। 20th Century Fox द्वारा रिलीज़ की गई यह फिल्म अमेरिका और यूरोप में सीमित सफलता प्राप्त कर सकी, लेकिन भारत में विवाद और सेंसरशिप के कारण इसका प्रदर्शन रोक दिया गया।
सटीक कमाई के आँकड़े सार्वजनिक रूप से उपलब्ध नहीं हैं, लेकिन इसे वाणिज्यिक असफलता माना जाता है।

आलोचनात्मक प्रतिक्रिया (Critical Reception)

रिलीज़ के समय समीक्षाएँ मिश्रित थीं —
कुछ आलोचकों ने इसकी बोल्ड थीम और मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण की सराहना की, जबकि अन्य ने इसकी गति, रोमांटिक प्रसंग और कास्टिंग की आलोचना की।

बाद के वर्षों में इसे एक “सिनेमा क्यूरियोसिटी” (cinematic curiosity) के रूप में देखा गया — यानी एक ऐसा प्रयोग जो साहसिक तो था, पर समय के साथ धुंधला पड़ गया।

स्वीकृति, विवाद और सेंसरशिप

फिल्म और जिस उपन्यास पर यह आधारित थी — दोनों को भारत में प्रतिबंधित (banned) किया गया।
सरकार का मानना था कि यह फिल्म गोडसे के प्रति सहानुभूति दिखाती है और इससे सार्वजनिक भावना आहत हो सकती है।

फिल्म पर यह आरोप भी लगे कि यह “विदेशी नज़रिए से” भारतीय इतिहास को देखने की कोशिश करती है।
इन विवादों के कारण फिल्म भारतीय दर्शकों तक नहीं पहुँच सकी और धीरे-धीरे भुला दी गई।

पुरस्कार / सम्मान (Awards & Recognition)

फिल्म को किसी भी प्रमुख अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार (जैसे ऑस्कर या कान्स) में मान्यता नहीं मिली।
1982 में जब रिचर्ड एटनबरो की Gandhi आई, तब यह विषय एक बार फिर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में आया — और उस फिल्म ने लगभग सभी बड़े पुरस्कार जीते।

सारांश / निष्कर्ष (Verdict)

Nine Hours to Rama एक साहसिक और प्रयोगात्मक फिल्म है, जिसने गांधीजी की हत्या को एक मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से दिखाने की कोशिश की।
इसकी थीम और वातावरण प्रभावशाली हैं, लेकिन

  • गलत कास्टिंग,
  • ऐतिहासिक असंतुलन,
  • और भारतीय संवेदनशीलता की कमी
    के कारण यह फिल्म क्लासिक बनने से चूक गई।

आज यह फिल्म एक ऐतिहासिक दस्तावेज या सिनेमा के प्रयोग के रूप में दिलचस्प है — जो दिखाती है कि संवेदनशील घटनाओं को परदे पर प्रस्तुत करने में “कला और संवेदना” के बीच की दूरी कितनी नाज़ुक होती है।

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