
– एक दृष्टिकोण
जब डोनाल्ड ट्रंप ने सोशल मीडिया पर भारत को टैरिफ बढ़ाने की धमकी दी, तो यह कोई नई शैली नहीं थी। ट्रंप का ट्रोलिंग स्टाइल अब सबको पता है — लेकिन सवाल यह है कि अमेरिका हो या यूरोप, क्या उन्हें भारत को नैतिकता का पाठ पढ़ाने का कोई अधिकार है? खासकर तब जब खुद उनकी नीति जरूरत नहीं, सुविधा और अवसरवादी गठजोड़ पर आधारित हो?
तेल के नाम पर चालबाज़ियाँ: ये बाजार है या अखाड़ा?
भारत का रूस से तेल खरीदना क्या अपराध है? या फिर यह वैश्विक सत्ता संरचना को चुनौती देने का साहस है, जिसे पचाना कठिन हो रहा है? भारत ने स्पष्ट रूप से कहा कि रूस से तेल आयात कोई राजनीतिक बयान नहीं, बल्कि एक विकल्पहीन व्यावहारिकता है। जब यूक्रेन युद्ध के बाद परंपरागत तेल आपूर्ति यूरोप की तरफ मोड़ दी गई थी, तब अमेरिका ही चाहता था कि भारत रूस से तेल खरीदे, ताकि बाज़ार स्थिर रहे।
आज वही अमेरिका, वही यूरोप, भारत पर नैतिकता का ठेका लेकर उंगली उठा रहे हैं — जबकि खुद रूस से न केवल व्यापार कर रहे हैं, बल्कि रसायन, उर्वरक, पैलेडियम, यूरेनियम और LNG जैसे संसाधनों का भारी मात्रा में आयात भी कर रहे हैं। क्या इसे नैतिक व्यापार कहा जाएगा?
विपक्ष की विडंबना: सवाल उठे, लेकिन दिशा नहीं दिखी
भारत में भी विपक्ष इस मुद्दे को लेकर सरकार पर हमलावर हुआ — लेकिन उनकी आलोचना में तथ्य कम, राजनीतिक गुस्सा ज्यादा था। कुछ नेताओं ने इसे आत्मनिर्भरता की विफलता बताया, तो कुछ ने अंतरराष्ट्रीय नैतिकता की दुहाई दी, लेकिन किसी ने यह नहीं बताया कि जब अमेरिका और EU खुद वही कर रहे हैं, तो भारत को क्यों अलग मानकों से तौला जा रहा है?
यह आलोचना रचनात्मक विमर्श नहीं, बल्कि राजनीतिक स्कोरिंग जैसी लगी — जहाँ राष्ट्रीय हित एक बार फिर राजनीति की बलि चढ़ गया।
क्या भारत को सफाई देने की जरूरत है? नहीं। बल्कि सवाल पूछने की जरूरत है।
भारत को हर बार यह साबित करने की जरूरत क्यों है कि वह जो कर रहा है वह देशहित में है? क्या हर उभरती अर्थव्यवस्था को पश्चिमी लेंस से ही देखा जाएगा? और अगर कोई इससे अलग राह चुनता है, तो क्या उसे बदनीयती का प्रतीक मान लिया जाएगा?
सच तो यह है कि भारत की ऊर्जा नीति अब किसी की “हां” या “ना” पर नहीं चलती। वह अपने घरेलू हित, जनसाधारण की जरूरत, और वैश्विक संतुलन को समझते हुए फैसले करता है। और अगर कोई इसे चुनौती देता है, तो उसका जवाब तथ्यों से ही दिया जाना चाहिए — जैसा MEA ने इस बार बखूबी किया।
भारत की नीति – ना दवाब में, ना दिखावे में
भारत न तो अमेरिका से डरता है, न यूरोप से प्रभावित होता है। भारत का नीति-सिद्धांत स्पष्ट है – “हम दोस्ती चाहते हैं, दासता नहीं। सहयोग के लिए खुले हैं, पर शर्तों पर नहीं।”
तेल हो या व्यापार, भारत अब नैतिक उपदेशों का मोहताज नहीं, बल्कि वैश्विक संवाद में एक सक्षम, विवेकशील और स्वाभिमानी आवाज है।
अब समय आ गया है कि पश्चिम भी यह स्वीकार करे —