अध्यात्म - एडिटर्स चोईस - होम

क्या श्रीकृष्ण भी “फेयर एंड लवली” थे?

शादी हो या नौकरी — जब “स्किन टोन” ही बन जाए “रिज़्यूमे”, तो पूछना लाज़मी है — क्या श्रीकृष्ण भी “फेयर एंड लवली” थे?

क्या कभी भी राधा को या गोकुल की गोपियों को कान्हा के सांवले रंग को लेकर शिकायत करते हुए सूना है?

पर हमारी सोसाइटी को देखिए — शादी का मंडप हो या नौकरी का इंटरव्यू, सबसे पहले “स्किन टोन” स्कैन होता है, बाकी सब कुछ तो बस ‘एडजस्ट’ कर लेंगे।

हाल ही में एक शादी में जाना हुआ। सब कुछ बढ़िया चल रहा था — पंडित मंत्र पढ़ रहा था, डीजे बीट्स बजा रहा था और लोग, खा भी रहे थे और शादीशुदा जोड़े की मार्कशीट भी बना रहे थे। पास खड़ी दो आंटियों की कानाफूसी सुनाई दी — “लड़की थोड़ी सांवली है… वैसे ठीक ही लग रही है, लगता है थोड़ी कम्प्रोमाइज़िंग करनी पड़ी होगी!”
दूसरी बोली, “लड़का क्या कम था जो…”
मतलब, दूल्हा-दुल्हन की शादी का विश्लेषण ऐसा चल रहा था जैसे UPSC का इंटरव्यू हो, जिसमें लड़की के स्किन टोन ने उसे कम नंबर दिला दिए हों।

सबसे बड़ा क्वालिफिकेशन

आजकल शादी हो या नौकरी — ‘स्किन टोन‘ ही सबसे बड़ा क्वालिफिकेशन है। दुल्हन अगर गोरी हो तो कहा जाता है — “ब्यूटी विद ब्रेन्स”, और अगर थोड़ी सांवली हो, तो “कोई बात नहीं, एडजस्ट कर लेंगे।” और एडजस्टमेंट तो सभी को हर हाल में करना ही पड़ता है।
मजेदार बात ये कि, चर्चा दोने के बारे में होती है , पर विशेष रूप से के बारे में विशेष टिप्पणी की जाती है. दूल्हा अगर “जलेबी शेड” का हो तो कोई सवाल नहीं उठता — उल्टा तारीफ होती है, “क्या डस्की लुक है! बहुत स्मार्ट लग रहा है।”

शादी के विज्ञापन देखिए —
“Fair, slim, convent-educated” — जैसे लड़की नहीं, कोई इत्र की शीशी हो!
कहीं ऐसा पढ़ा है आपने – “Honest, empathetic, emotionally intelligent”? यह तो सब एडिशनल क्वोलिफिकेशन, क्योंकि पहले कॉम्प्लेक्शन जमना चाहिए — बाकी सब तो ‘यूजर सेटिंग्स’ में बदला जा सकता है।
Character quality? गौण है जनाब — डिस्प्ले अच्छा होना चाहिए और पैकेजिंग चमकीली होनी चाहिए।

ब्यूटी क्रीम्स और इंस्टाग्राम फिल्टर्स की दुनिया में बस एक ही नारा !

“अगर काबिल बनना है, तो पहले गोरे बनो।”
बच्चे भी इसी मानसिकता में बड़े हो रहे हैं — उन्हें लगने लगा है कि सांवला रंग कोई कमी है जिसे दूर करना ज़रूरी है।

स्टैंडअप कॉमेडी में भी रंग-स्किन टोन का मज़ाक!
हर तीसरे जोक में कोई ना कोई किसी के रंग या शरीर पर ताना मार रहा होता है — और हम सब सोफे पर बैठ कर हँसते हैं।
हँसी के नाम पर खुद की बेज्जती पर भी तालियाँ बजा देते हैं — “टिकट की कीमत वसूल हो गई।”

अब सोचिए, अगर श्रीकृष्ण आज के Tinder पर होते, तो क्या लिखते अपनी प्रोफाइल में?

“शाम वर्ण, बांसुरी बजाता हूँ, इमोशनली अवेलेबल हूँ — पर गोरा नहीं हूँ, अगर ये इश्यू है तो ‘Swipe Left!’”

सच यही है कि कृष्ण सांवले थे — मगर उनमें जितना आकर्षण था, उतना न किसी में था, न होगा।
न राधा ने कभी उनके रंग की परवाह की, न गोपियों ने — उन्होंने सिर्फ भाव देखा, आत्मा का रंग देखा।

रंगभेद — इंडियन वर्जन 2.0!
हम अक्सर अंग्रेजों को दोष देते हैं कि उन्होंने रंगभेद फैलाया — पर हमारे दादा-परदादा तो पहले से ही ‘ब्राउन शेमिंग’ में पीएचडी कर चुके थे।
जात-पात और वर्णव्यवस्था तो सदियों से हमारे डीएनए में है।

गांधीजी को साउथ अफ्रीका में ट्रेन से नीचे उतारा गया था — उनके रंग- स्किन टोन के कारण।
और हम?
हम ट्रेन से नहीं उतारते — हम लोगों को अपनी और सबकी नजरों से उतार देते हैं।

बॉलीवुड, होलिवुड और स्किन टोन —
गोरी स्किन वाला हीरो = रोमांस, ग्लैमर
सांवला हीरो = रियलिस्टिक या सोशल ड्रामा, या फिर हीरो का भाई!

जब कोई डार्क स्किन एक्टर सफलता पाता है, तो हेडलाइन बनती है — “Breaking Barriers!”
जैसे सुंदरता किसी एक रंग या जाति का पेटेंट हो।

हॉलीवुड में आज भी ब्लैक डायरेक्टर्स को फंडिंग पाने में दिक्कत होती है।
OTT प्लेटफॉर्म्स ने कुछ बदला जरूर है — पर माइंडसेट अब भी वहीं अटका है।

अब सवाल सीधा है — रील हो या रियल लाइफ —सफलता का पैमाना क्या होना चाहिए?

  • शादी के लिए जरूरी क्या है ? स्किन टोन या आत्मा का रंग?
  • क्या एक अच्छा जीवनसाथी गोरेपन से तय होता है?

जैसे लेखक जेम्स बाल्डविन कहते हैं — “Love takes off the masks…”

और जब वो नकाब उतरता है,
तो शब्द बदलते हैं, सोच बदलती है और फिर आईना भी मुसकुराने लगता है।

सिग्नेचर
स्किन टोन — ये सिर्फ एक मुखौटा है।
इसे उतारने या हटाने के लिए “फेयरनेस क्रीम” नहीं, समझ और साहस चाहिए।

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