
माइंड मैनेजमेंट: ग़ुस्सा, ईर्ष्या और स्वार्थ का समझदारी से प्रबंधन
मन – “शांति-आश्रम” या “अखाड़ा”?
अक्सर यह सवाल उठता है कि हमारे इतने बड़े शरीर में, छोटा सा दिमाग और उसमें बसा हुआ मन… उसके बारे में क्या ही कहें? उसमें तो 24 घंटे विचारों का तूफ़ान रहता है। वह कोई “शांति-आश्रम” नहीं, बल्कि एक “अखाड़ा” है, जहाँ हर पल कोई न कोई टकराव, संघर्ष, प्रतिस्पर्धा चलती ही रहती है।
या फिर मन एक समाधान केंद्र है?
पर फैसला तो हमें ही करना है कि हम मन को अखाड़ा ही रहने देना चाहते हैं या उसे शांति-आश्रम या एक समाधान केंद्र बनाना है।
लेकिन असल में, यह क्या है और इसे क्या बनाना है – इसका फ़ैसला कौन करता है? हम या ऊपरवाला।
राजेश खन्ना ने आनंद फिल्म में कहा था कि “हम सब रंगमंच की कठपुतलियाँ हैं, जिनकी डोर ऊपरवाले की उंगलियों से बंधी है – कौन, कब और कैसे उठेगा, ये कोई नहीं जानता। हाहाहाहा…!”
भावनाएँ – फ्रीलांसर लेकिन लाइफटाइम कॉन्ट्रैक्ट पर
असल में हम सब रंगकर्मी हैं। मैं तो मानता हूँ कि हमारा शरीर एक ऑडिटोरियम है, हमारा मन रंगमंच है और वहाँ परफॉर्म और संघर्ष करते हैं – खुशी, आशा, उमंग ग़ुस्सा, ईर्ष्या, उदासी, निराशा और अकेलापन जैसे कलाकार, उनके बिछ भावनात्मक संघर्ष चलता ही रहता है । हर कलाकार अपना सर्वश्रेष्ठ देने की कोशिश करता है।
सच ये है कि ये सारे भाव, हमारे पेरोल पर नहीं हैं – ये सभी फ्रीलांसर हैं। लेकिन हमारी उलझन ये है कि हमने इन्हें लाइफटाइम कॉन्ट्रैक्ट दे रखा है, और वो भी ऐसा कॉन्ट्रैक्ट जो ऊपरवाले ने किया है – जिसे हम न तो रद्द कर सकते हैं और न ही फायर कर सकते हैं।
हमारी हालत – धोबी के कुत्ते जैसी …न घर का न घाट का
हम “बाय डिफॉल्ट” जीने में इतने व्यस्त हैं कि अपने जीवन की स्क्रिप्ट लिखना ही भूल गए हैं, या लिख नहीं पाते। इसलिए हर भावना अपनी मनमानी करती है, अपनी स्क्रिप्ट खुद लिखती है और अपनी डायलॉगबाज़ी चलाती है। वो हमें ही कंट्रोल करने लगती हैं। और हमारी हालत हो जाती है जैसे धोबी का कुत्ता – न घर का, न घाट का।
सकारात्मक और नकारात्मक भाव – दोनों ज़रूरी
सच ये है कि प्रेम, दया, सम्मान, सहानुभूति जैसी सकारात्मक भावनाएँ जितनी ज़रूरी हैं, उतनी ही नकारात्मक भावनाएँ जैसे ग़ुस्सा, ईर्ष्या और स्वार्थ भी ज़रूरी हैं।
एक ही सब्ज़ी हर दिन? बोरियत तय!
सोचिए, अगर रोज़ खाने में एक ही सब्ज़ी हो, तो आप कितने दिन खा पाएंगे? या अगर हर दिन बस मिठाई ही परोसी जाए, तो कितने दिन तक आनंद ले पाएंगे? कुछ दिन बाद बदलाव चाहिए ही होगा।
मनुष्य का स्वाभाविक स्वभाव – बदलाव की चाह
जिस तरह भोजन में खट्टा-मीठा दोनों ज़रूरी हैं, उसी तरह जीवन में उमंग और ग़ुस्सा, खुशी और ईर्ष्या, आशा और उदासी – सबका होना ज़रूरी है। दुख झेलेंगे, तभी सुख की असली कद्र समझ आएगी।
ज़रूरत है समझदारी से जीने की
ग़ुस्सा – अलार्म या आग?
जैसे प्रेम को हर जगह जताया नहीं जा सकता, वैसे ही ग़ुस्से को भी हर जगह फूटना ज़रूरी नहीं। अगर ग़ुस्सा किसी समस्या की जड़ तक पहुँचने में मदद करे, तो वो वाजिब है।
ईर्ष्या – अलार्म, आग या ईंधन?
पड़ोसी ने नई कार ली और आप अब भी स्कूटर चला रहे हैं – ईर्ष्या होना स्वाभाविक है। लेकिन अगर मन में उसके शीशे तोड़ने का ख्याल आए – तो ये अलार्म है। ईर्ष्या तक तो सामान्य है, लेकिन जब वह क्राइम की स्क्रिप्ट लिखने लगे – तब यह समजना होगा कि खतरे की घंटी बज चुकी है।
स्वार्थ – सही मात्रा में ज़रूरी
अगर हममें स्वार्थ न हो, तो हम संन्यासी बन जाएँ। थोड़े स्वार्थ से कोई नुकसान नहीं – जैसे विमान में अनहोनी घटित हो तो ऑक्सीजन मास्क पहले खुद लगाना ज़रूरी है, फिर दूसरों की मदद करनी चाहिए।
भावनाओं को बहने देना ज़रूरी है
भावनाएँ ज़रूर व्यक्त करनी चाहिए – पर कहाँ, कितनी और किसके सामने, ये समझना और भी ज़रूरी है।
ग़ुस्सा – अपनों पर फूटे तो रिश्ते टूट सकते हैं। परायों पर निकले तो दुश्मनी बढ़ सकती है। और अगर कोई तीसरा देख ले, तो साउथ पोल तक आपकी बदनामी पहुँच सकती है।
असल में – ग़ुस्सा व्यक्ति पर नहीं, परिस्थिति पर होता है
हम सब जानते हैं – ऊपरवाले की मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं हो सकता।
ग़ुस्सा आना स्वाभाविक है – पर जब उसे कहीं बाहर नहीं निकाल सकते, तो वह अपने ही लोगों पर फूटता है। ज़्यादा तर ग़ुस्सा किसी इंसान पर नहीं, उस समय की परिस्थिति पर होता है।
भावनाओं का रिमोट कंट्रोल हमारे हाथ में होना चाहिए
हर भावना जीवन भर हमारे साथ रहने वाली है – वह कभी भी, किसी भी समय सिर उठा सकती है। इसलिए ज़रूरी है कि हम उनके रिमोट को खुद के हाथ में रखें। भावनाओं को किसके सामने, कितनी मात्रा में और कब जताना है – ये सीखना बेहद ज़रूरी है।
भावनाओं को ‘इच्छाधारी’ न बनने दें
अगर उन्हें नियंत्रित नहीं किया गया, तो वो पोखर के पानी की तरह सड़ने लगेंगी – और वह अंदर से आपको तोड़ देंगी। जीवन में मिठास होनी चाहिए – लेकिन बसंत पाने के लिए पतझड़ भी सहना पड़ता है।
भावनाएँ दुश्मन नहीं – शिक्षक हैं।
स्वीकार कीजिए – हाँ, मैं ग़ुस्सैल हूँ, हाँ, मैं ईर्ष्यालु हूँ, हाँ, मैं स्वार्थी हूँ
जरूरी नहीं कि इन बातों को सबके सामने कबूल करें – पर कम से कम खुद से तो ईमानदार रहें।
हर भावना का तुरंत रिएक्शन जरुरी नहीं – थोड़ा ठहरें। जैसे ट्वीट का तुंरत रिप्लाई ज़रूरी नहीं, वैसे ही भावनाओं का भी।
असल में ये भावनाएँ हमें नुकसान नहीं पहुँचातीं – हमारी अत्यधिक प्रतिक्रिया (overreaction) नुकसान करती है।
हमारा मन रिएक्ट करने में एक्सप्रेस डिलीवरी से भी तेज़ है – पर ये कोई ऑनलाइन खरीदारी नहीं, जहाँ ‘रिटर्न पॉलिसी’ हो।
यहाँ अंत में बस पछतावा ही बचता है।
सिग्नेचर लाइन:
ज़रूरत है –
- ग़ुस्से के साथ स्पीड ब्रेकर की,
- ईर्ष्या को अलार्म की तरह देखने की,
- और स्वार्थ को अपने लिए एक ‘रीचार्ज स्टेशन’ समझने की।